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गीत 85 : प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में--

गीत

212---212---212---212

प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में

अब ये बादल भी बरसे न बरसे तो क्या !


ज़िंदगी भर चला जो कड़ी धूप में

उम्र भर जो सफ़र में रहा मुबतिला

जिसको मंज़िल मिली ही नहीं आजतक

ख़ुद से करता भला वो कहाँ तक गिला


उसको छाया किसी का मिला ही नहीं

बाद छाया मिले ना  मिले भी तो क्या !


ज़िंदगी के सवालात थे सैकड़ों

जितना सुलझाया उतना उलझता गया

चन्द ख़ुशियाँ रहीं तितलियों की तरह 

दर्द मेरा हमेशा  ठहरता  गया  ।


दर्द की जब नदी में उतर ही गया

पार कश्ती लगे ना लगे भी तो क्या !


राह सबकी अलग सबकी मंज़िल अलग

कोई बैसाखियों से चला उम्र भर ।

पालकी भी किसी को न रास आ सकी

राह काँटों भरी , मैं चला उम्र भर ।


पाँव के आबलों में कहानी मेरी

लोग चाहे पढ़ें ना पढ़ें भी तो क्या !


-आनन्द.पाठक-

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